छतरपुर। विद्यार्थियों की शंकाओं का समाधान करते हुए प्राचार्य लखनलाल असाटी ने सहानुभूति, समानुभूति, चेतना, संवाद, क्रोध आदि शब्दों का विस्तार से वर्णन किया। अनेक बच्चों का प्रश्न था कि उन्हें क्रोध बहुत आता है इस पर लखनलाल असाटी ने कहा कि क्रोध आता नहीं है अपितु हम करते हैं और वह भी खुद की स्वीकृति से। इस स्वीकृति के पीछे हमारे अंदर केे संस्कारों में बैठी गहरी मान्यता होती है। उन्होंने कुछ उदाहरण देकर कहा कि एक जैसी गलती करने पर हम छोटों पर गुस्सा करते हैं परंतु बड़ों से संकोच करते हैं। छोटे भाई से गिलास टूट जाने पर उसके साथ मारपीट कर सकते हैं पर पिता के हाथ गिलास टूटने पर कोई बात नहीं कहकर टुकड़े बटोरने लग जाते हैं। इसका आशय यह है कि एक जैसी घटनाओं पर हमारी प्रतिक्रिया बिल्कुल अलग-अलग है। क्योंकि हमारे संस्कारों में यह गहरी मान्यता बैठ चुकी है कि बड़ों का सम्मान करना चाहिए पर वास्तविकता तो यह है कि सम्मान की आवश्यकता तो सभी को है।
अपनी कल्पनाशीलता को ठीक ढंग से देखने का प्रयास करेंगे तो यह भी दिखाई देगा कि जिस व्यक्ति पर हमें क्रोध आता है उसके प्रति पहले से ही हमने कोई विरोध का भाव पाल रखा है। जैसे कि कई बार हम कहते हैं कि सीधी उंगली से घी नहीं निकलता अथवा लातों के भूत बातों से नहीं मानते आदि-आदि। इसीलिए कई बार सामने वाला अपनी पूरी बात रख भी नहीं पाता है और हम गुस्सा करने लगते हैं। वस्तुत: हम एक गैस सिलेण्डर की भांति खुद को प्रस्तुत करते हैं जिसका नॉब खुला हुआ है तब कोई भी सामने वाला लाईटर दिखाता है और हम भड़क जाते हैं। हमने अपने जीने में जिन मान्यताओं और धारणाओं को स्वीकृति प्रदान कर दी वही हमारे संस्कार बन जाते हैं। आवश्यक तो यह है कि मान्यताओं को जांच परख कर लें उसके बाद ही उन्हें स्वीकार करें। लखनलाल असाटी ने कहा कि सहानुभूति का आशय किसी के सुख-दुख में भाव अभिव्यक्ति तक सीमित है। परंतु समानुभूति के दौरान उसके सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझकर हम कुछ करते भी हैं। इस दौरान रामपुर विद्यालय के विद्यार्थियों के साथ वरिष्ठ शिक्षक राजीवरमन पटैरिया, श्रीपाल अहिरवार, अभय कुमार जैन, कृष्ण कुमार तिवारी, शरद कुमार नामदेव, सुरेश कुमार अहिरवार, ज्योति व्यास, कुंवर सिंह केवट, ललित तिवारी उपस्थित थे।