छतरपुर, भक्ति के स्वरूप पर राम कथा सुनाते हुए चौथे दिन संत श्री मैथिली शरण स्वामी जी ने कहा कि रामचरितमानस एक ऐसा अद्भुत ग्रंथ है जिसमें मानव जीवन के संपूर्ण प्रबंधन को अनुभव किया जा सकता है, रामायण के प्रत्येक पात्र का चरित्र हमें बहुत कुछ सिखाता है, गंगा पार उतरने के बाद भगवान श्री राम मन ही मन विचार करते हैं कि केवट को कुछ दिया नहीं है, प्रभु के हृदय की बात जानने वाली सीता जी स्वत: उंगली में पहनी रतन जडि़त अंगूठी प्रसन्नता पूर्वक उतार कर प्रभु को सौंप देती है, इससे भी अधिक विलक्षणता इस बात की है कि प्रभु श्री राम और सीता जी  दोनों के हृदय की बात जानने वाला केवट अत्यंत प्रेम और विनम्रता पूर्वक अंगूठी को अस्वीकार कर देता है, भाई जी ने इस प्रसंग की तात्विक विवेचना करते हुए कहा कि भक्ति का संबंध वाणी की क्रिया से नहीं है,भक्त भगवान के मन की जानता है और भगवान भक्त के मन की,प्रभु श्री राम द्वारा दी हुई एकमात्र निशानी होने के बावजूद सीता जी ने उनके हृदय की बात को जानते हुए उसे उतारने में तनिक भी संकोच नहीं किया, सांसारिक व्यक्ति होता तो जरूर कहता कि अब यह एकमात्र निशानी थी वह भी आपने ले ली,
केवट भी उतराई में कुछ न लेने के बावजूद कह रहा है कि आपके संकल्प मात्र से आज मैंने क्या नहीं पा लिया है,
नाथ आजु मैं काह न पावा।
मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी।
आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें।
दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
रामचरितमानस का प्रबंधन यही है बिना कुछ कहे ही संतोष का सृजन होता है
कोउ किछु कहई न कोउ किछु पूँछा।
प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥
*त्याग और संग्रह के बीच संतुलन से होगा संतोष*
मैथिलीशरण स्वामी जी ने कथा प्रसंग को आगे बढ़ते हुए कहा कि साधना और साधना से प्राप्त उपलब्धि के बावजूद यदि असंतोष बना रहता है तो फिर जीवन में आनंद नहीं आएगा और साधना का कोई मतलब नहीं रह जाएगा, संसारी व्यक्ति भगवान को शक्तिशाली तो मानता है पर बुद्धिमान खुद को मानता है, इसलिए जो भी पूजा पाठ अनुष्ठान करता है उसमें अपनी इच्छा का संकल्प जोड़ देता है, जबकि भगवान तो सबके हृदय की जानने वाले है, जनक वाटिका में भक्ति स्वरूपा सीता जी की प्रार्थना से इसको समझा जा सकता है,
मोर मनोरथु जानहु नीकें।
बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं।
अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥
भगवान संतोष में स्थित होते हैं,
*सत्य के साथ शील की भी रक्षा करते हैं मानस के पात्र*
मैथिलीशरण स्वामी जी ने कहा कि मानस के पात्रों को छोटा बनने में कहीं कोई संकोच नहीं है वह तो सत्य के ऊपर शील को धारण कर चलते हैं, हनुमान जी सुरसा के सामने अपना बदन दोगुना करते चले जाते हैं,परंतु सुरसा के मुंह का आकार सौ योजन होते ही अति लघु रूप लेकर उसके मुंह में प्रवेश कर वापस आ जाते हैं और उसे प्रणाम करते हैं, हनुमान जी ने सुरसा को छोटा नहीं किया अपितु खुद छोटे हो गए,इसी विनम्रता को  देखकर हनुमान जी को खाने आई सुरसा उल्टे उन्हें राम काज करने का आशीर्वाद देकर जाती है, सुग्रीव को मारने की शपथ लेने वाले भगवान राम अपने सत्य पर टिके रहने के स्थान पर उसके शरणागत हो जाने पर उसे माफ कर देते हैं, यही रामायण और महाभारत में अंतर है महाभारत में सब कोई अपनी अपनी प्रतिज्ञा और सत्य पर टिका हुआ है, परंतु राम का प्रबंधन शील है इसीलिए राम राज्य बना, लक्ष्मण जी की बात को अनसुना कर शरणागत विभीषण की सलाह मानकर भक्त वत्सल भगवान राम समुद्र से तीन दिनों तक विनय करते हैं पर जब समुद्र की तरफ से कोई उत्तर नहीं आता है तो वह लक्ष्मण जी से धनुष बाण उठा लाने को कहते हैं, यहां यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि लक्ष्मण जी कोई उलाहना दिए बगैर धनुष बाण लाकर भगवान को देते है, संसारी व्यक्ति होता तो जरूर कहता कि मैंने तो पहले ही कहा था पर आप माने कहां, भगवान के भय से उपस्थित स्वार्थी समुद्र को दंडित करने, छोटा मानने के स्थान पर भगवान उसी से समुद्र पार करने का उपाय पूछ रहे हैं, समुद्र को सुखा देना रामत्व नहीं है इसलिए वह समुद्र को फिर एक अवसर दे रहे हैं यही है भगवान का कौशल इसलिए उन्हें कौशलेंद्र भी कहते हैं, समुद्र ऋषि अगस्तय के नल और नील वानर को दिए गए श्राप को वरदान बताते हुए सेतु बंधन का उपाय बताने के बावजूद यही कहता है कि आपके प्रताप से पत्थर समुद्र में तैरने लगेंगे, समुद्र भगवान के क्रोध का उपयोग अपने उत्तर तटवासी पापियों के दलन हेतु कर लेता है, यही है मानस का प्रबंधन
*चमत्कार नहीं चरित्र से बनता है रामराज्य*
संत श्री मैथिलीशरण स्वामी जी ने कहा कि भगवान राम ने कभी चमत्कार नहीं किया बल्कि अपने चरित्र से राम राज्य की स्थापना की वह छोटा होना जानते हैं यही रामचरितमानस का प्रबंधन है, चमत्कारी तो संसारी है, जिनके परमार्थ के पीछे स्वार्थ और प्रीत के पीछे नीति छुपी होती है पर भगवान के स्वार्थ के पीछे परमार्थ और नीति के पीछे प्रीत छुपी होती है, भगवान के सभी भक्तों ने उनके चरणों की स्तुति की है, भगवान कृष्ण ने अंतिम समय तक युद्ध रोकने का प्रस्ताव लेकर धृतराष्ट्र की सभा में गए, दुर्योधन को विराट रूप भी दिखाया पर उसे सिर्फ जादूगरी दिखी जबकि यही रूप जब माता यशोदा को दिखाया तो उन्होंने ब्रह्म को देखा, कर्ण को भी समझाया पर वह भगवान को छोड़कर बुराई के साथ बना रहा, अयोध्या में राजा दशरथ ने अपने सत्य के लिए भगवान को छोड़ दिया पर मथुरा में वसुदेव ने बाल कृष्ण पर  अपना सत्य  निछावर कर दिया,
स्वामी जी ने कहा कि यदि हमने परमसत्य भगवान को नहीं पकड़ा तो सत्य का क्या मतलब है, परम सत्य फल का सार है, भाई जी ने कहा कि दूसरे में जो उचित है उस पर ध्यान दीजिए अनुचित की आलोचना में लग जाएंगे तो फिर उचित पर ध्यान ही नहीं जाएगा रामचरितमानस  का प्रबंधन यही है कि वह उचित पर ही ध्यान देते हैं और सभी का उपयोग करते हैं